उत्तराखंड उत्तरी भारत का पर्वतीय राज्य होने के साथ अपनी प्राचीनतम संस्कृति और सभ्यता के लिए भी विश्वभर में प्रचलित है। पहाड़ों की सुन्दर वादियों से घिरे इस प्रदेश में अनेक पर्यटक व धार्मिक स्थल है। पर्यटन उत्तराखंड का आकर्षण का केंद्र बिंदु है। लेकिन हमें इस बात को भी नहीं भूलना चाहिए कि पलायन इस प्रदेश की खूबसूरती पर दाग बनता जा रहा है।
आज देवभूमि के गांव विरान होते जा रहे हैं। प्रत्येक गांव का हर तेरहवां घर शहरों की अस्थाई चमक को पाने के लिए पहाड़ों के प्राकृतिक सौंदर्य को छोड़ने के लिए मजबूर है। उत्तराखंड में गांवों से शहरों की ओर पलायन का सिलसिला कोई नया मसला नहीं है। गांवों में कृषि भूमि के लगातार कम होते जाने, आबादी बढ़ने और प्राकृतिक आपदाओं के चलते रोज़ी-रोटी की तलाश में ग्रामीणों को शहरों-कस्बों की ओर रुख करना पड़ा है।
जय जवान जय किसान का नारा देते वक्त हमारे देश के पूर्व राष्ट्रपति लाल बहादुर शास्त्री ने कभी ये नहीं सोचा होगा कि कोई कृषि से परेशान होकर पलायन करेगा।
लेकिन उत्तराखंड के पलायन के मुख्य कारणों में से एक कृषि की दुर्दशा है। पहाड़ों के किसानो में अभी भी तकनीकी प्रणाली के प्रयोग को लेकर बहुत बड़ी जंग है।
गांव का नौजवान बेहतर शिक्षा और रोज़गार की तलाश में गांव छोड़ते नज़र आ रहे हैं। जीवन में नई ऊंचाईयों को पाने की लालसा ने उनके पैरों को शहरों की ओर मुड़ने के लिए मजबूर कर दिया है। मनुष्य के जीवन की आम ज़रूरते रोटी, कपड़ा और मकान की पूर्ति है ये सबसे आधारभूत आवश्यता।
उत्तराखंड के गांवो में बिजली के आभाव में अंधकार की दुनिया में रहने वाले भोले-भाले पर्वत निवासी अपने दर्द को बयां भी नहीं कर पाते। बस अंधकार की मार झेलते रहते हैं। गांवों की सड़कों की हालत बहुत ही खस्ता है, लोगों को परिवहन सुविधाओं में भी असहजता से समझौता करना पड़ता है। स्वास्थ्य के संबध में कहा जाता है कि स्वस्थ्य तन तो स्वस्थ मन, लेकिन उत्तराखण्ड के गांवो के अस्पतालों को देखकर लगता है ये किसी मज़ाक से कम नहीं हैं।
आज जिस प्रकार से सरंकार गांवों के विकास के नाम पर तरह-तरह की योजनाएं बनाए जा रही हैं। वही उन योजनाएं पहाड़ों तक पहुंचते-पहुंचते सिर्फ सरकारी कार्यालयों के कागजों में सरकारी कर्मचारियों को आबाद करती हैं। जिस कारण पहाड़ों से गांव दिन प्रतिदिन वीरान होते चले जा रहे हैं। इस कारण धीरे-धीरे शहरों की आबादी में भारी वृद्धि हो रही है।
ग्रामीणों का शहरों की ओर पलायन करने के कारण गांवो के खेती बंजर होती चली जा रही है और यहां के परम्परागत मकान धीरे-धीरे खंडरों में तबदील होते जा रहे हैं। जहां शहरों की चकाचौंध ग्रामीणों को अपनी ओर आकर्षित कर रही है, वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में सुविधाओं की कमी भी उन्हें शहर जाने के लिए प्रेरित कर रही है। सरकार के नुमाइंदे भी गांव के विकास की ओर कम और शहर के विकास पर ज़्यादा ध्यान दे रहे हैं।
आज भी ऐसे कई गांव देखे जा सकते हैं, जहां शिक्षा, सड़क, बिजली जैसे कई मूलभूत सुविधाओं का आभाव है। ग्रामीणों को आज भी पीने के पानी के लिए कई किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है। स्वास्थ्य की बात की जाए तो ग्रामीण क्षेत्रों में सरकारी चिकित्सालय तो खोल दिए गए हैं। लेकिन वहां या तो डॉक्टर नहीं है या फिर साधन ही उपलब्ध नहीं है।
वहीं हाल शिक्षा का भी है। कई विद्यालय भवन की जर्जर हालत और शिक्षकों की कमी का रोना रो रहे हैं। कई गांव आज भी सड़क से महरूम है, ग्रामीणों को कई किलोमीटर दूरी तय कर कच्चे पक्के रास्तों से होकर गांव में जाना पड़ता है। साथ ही वहां ना तो बिजली की उचित सुविधा है और ना ही आमदनी का कोई ज़रिया। ऐसे में ग्रामीणों को कई कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है।
खेती-बाड़ी के काम में भी नुकसान होने के कारण ग्रामीणों का गांव से मोह भंग हो गया है। सरकार भले ही गांवो के विकास की बात कर रही है लेकिन हकीकत यह है कि यहां भी सुविधाओं का आभाव है। जिस कारण लोग पहाड़ से मैदान की ओर भागे जा रहे हैं। भारत गांव का देश है और सरकार द्वारा भी ग्रामीणों के विकास के लिए तरह-तरह की योजनाएं बनाई जाती हैं। लेकिन सरकार की यह योजनाएं मैदानी इलाकों तक ही सिमट कर रह जाती हैं। पहाड़ो के गांव तक योजनाएं तो जाती हैं मगर शायद ही कही धरातल पर कार्य किया जाता है। जिस कारण पहाड़ों के गांव विकास की गति से बहुत पीछे रह गए हैं और गांव की जवानी मैदानी क्षेत्रों में पलायन करने को मजबूर है।
सरकार को चाहिए कि वह पहाड़ों में रोज़गार के साधनों का विकास करें और यहां पर मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध करवाए। रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधाओं का विकास करने पर पहाड़ों से पलायन रोका जा सकता है। गांवों का विकास करके ही सरकार यहां की जवानी को विकास के लिए इस्तेमाल कर सकती है।